कचरा व्यूह

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प्रतिदिन मात्र मेट्रो शहरों में 1,88,500 (2012)टन घन कचरा तैयार करने वाले हमारे देश में पिछले गांधी जयंती  से स्वच्छ भारत का नारा मीडिया में गूंज रहा है.उस कचरे में से 83% इकठ्ठा किया जाता है और फिर उस में मात्र 29% कचरे का निस्तारण किसी प्रक्रिया से किया जाता है, बाकी बचे कचरे के अंबार हमारे शहरों के बाहर पहाड़ की तरह खड़े हो रहे हैं.इस कचरे को साफ़ करने वाले सफ़ाई कर्मचारियोंमें से प्रति वर्ष 22, 327 कर्मचारी अपनी जान गवाते हैं.ऐसे में प्रसिद्ध रंगकर्मी अतुल पेठे द्वारा 2007 में बनी फ़िल्म कचरा व्यूह को देखकरमन में सवाल पैदा होता है कि सफाई कर्मचारियों और कचरा बीनने वालों की नरकयातानाओं की बुनियाद पर भारत स्वच्छ कैसेहो सकता है ?

स्वच्छ भारत अभियान को एक वर्ष होने से ठीक पहले वाइब्रेंट गुजरात में सफाई कामदारों की हड़ताल हुई. सरकार की तरफ से सफ़ाई कर्मचारियों की मांगों की अनदेखी की गयी. हड़तालियों को जेल में डाला गया. जनवरी में यही हाल दिल्ली में भी देखा गया और हमारे अपने शहर उदयपुर में भी जहाँ भी अधिकतर सफ़ाई कर्मचारीअस्थाई मजदूर के रूप में कार्यरत हैं. वे अपने स्थायित्व, वेतनमान और अमानवीय कार्यस्थितियों में बदलाव की मांग कर रहे थे, परन्तु सरकार के कान पर जूं तक नहींरेंगी.और तो और सामान्य नागरिकों से भी अवहेलना झेलते आ रहे येसफ़ाई कर्मचारीजब अपने हक़ की बात करते हैं तो उनके समर्थन मेंखड़े होना तो दूर की बात  लोगउन पर ही गंदगी फैलाने का आरोप लगाते हैं.इन हालातों में कचरा व्यूह हमेंहमारे समाज का आइना दिखाती है औरनागरिकों से खुद को सफ़ाई शिक्षा से दीक्षित होने को कहती है.

अब ये सफ़ाई दीक्षा क्या है? क्या एक दिन के लिए कैमरे के सामने झाडू उठा लेने से भारत स्वच्छ हो जाएगा? हमारे घर और उसके परिसर मात्र की सफ़ाई से गंदगी साफ़ हो जायेगी? सफ़ाई का का काम बेहद गंदा माना जाता है ऐसा क्यों? ऐसा क्यों है की लगभग 99.99 प्रतिशतसफ़ाई कर्मचारी दलित समुदाय से आते हैं? जब तक सफ़ाई के काम को जाति विशेष से जोड़ा जाएगातब तक इस काम के प्रति सर्वसमावेशक नज़रिया नहीं बन सकता और न ही सफ़ाई का सवाल दलित उत्पीडन से अलग किया जा सकता है. घर में ही देखिए कौनपाखानों को साफ़ करता है ? जबअधिकतरघरों में यहकाम महिलाओं के ही जिम्मे माना जाता हो और समाज में यह दलितों पर मढ़ दिया गया हो तो सफ़ाई का क्षेत्र पावर डिस्कोर्स के भार से सामजिक सरोकारों में दब जाता है. हाशिए से इन सवालों को विमर्श के केंद्र में लाने का महत्वपूर्ण काम कचराव्यूह करती है.यह फ़िल्म पूना के महानगर पालिका के सफ़ाई कर्मचारियों की यूनियन के साथ मिलकर बनायी गयी है ये इसकी ख़ासियत है.

अतुल पेठे:

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लेखक, रंगकर्मी और फ़िल्मकार के रूप में अतुल पेठे मराठी नाटक का एक बड़ा हस्ताक्षर हैं.समान्तर थियेटर में बरसों बेहतरीन नाटकों को रंगमंच को उतारने के बाद 90 के दशक की बदलते सामाजिक- राजनैतिक परिदृश्यमेंअतुल ने अपनी कला के नए मायने और आयाम ढूंढें. अनेक सामाजिक आंदोलनों के साथ जुड़कर उन्होंने काम करना शुरू किया. सफ़ाई करमचारियों को बतौर कलाकार गो. पु. देशपांडे के नाटक सत्यशोधककेज़रिए रंगमंच पर लाया और उनसे जुड़े सामाजिक‘कलंक’ को चुनौती प्रस्तुत की. हाशिए के पहचानों को कला के माध्यम से नई पहचान गढ़ने की कोशिश सांस्कृतिक प्रतिरोध का हथियार बन जाती है. साथ ही शाहीर और संतों की सामजिकसांस्कृतिक विरासत को वर्तमान के आयामों से जोड़करजनमानस तक पहुचाते हुए वे प्रतिरोध की भाषा बुन रहे हैं.

कचरा व्यूह /  दस्तावेज़ी फ़िल्म / निर्देशक अतुल पेठे / 55 मिनट

  • प्रज्ञा जोशी